'ईमानदारी'
विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी के सामने से मैं अपने कुछ मित्रों के साथ कुलपति महोदय से कुछ काम के सिलसिले से मिलने जा रहा था, तभी पीछे से किसी ने आवाज लगायी- 'रुकिये महोदय!'
हम लोग रुके, मुड़कर देखा तो पुलिस की वर्दी-सा कपड़ा पहने चपरासी खड़ा था। उसी ने हमें आवाज़ लगायी थी। चपरासी पास आकर बड़ी विनम्रता से बोला - 'लीजिए, आपका पर्स अभी गिर गया था।'
मैंने अचम्भित होकर कहा - 'मेरा तो कोई पर्स नहीं गिरा, मेरा पर्स मेरे पास ही है। ये किसी दूसरे का होगा।'
चपरासी भी अचम्भित होकर बोला - 'आपका नहीं है?'
मैंने कहा - 'हाँ, मेरा नहीं है।'
इतना कहते ही हम लोग फिर से मुड़कर लम्बे-लम्बे कदमों से अपनी मंजिल की ओर चल पड़े।
एक मित्र ने कहा - 'यार तूने पर्स क्यों नहीं लिया। उसमें चार लाल-लाल हजारे की, कुछ पीली-पीली इसके अतिरिक्त भी कई नोटें दिखाई दे रही थी। पूरा कम से कम सात हज़ार तो था ही।'
मेरा उत्तर था - 'वह ईमानदारी के साथ पर्स मुझे दे रहा था। उसके हिसाब से वो पर्स मेरा था। अगर चाहता तो पर्स अपने पास भी रख सकता था। उसे हल्ला मचाने कि क्या जरूरत थी कि मैंने पर्स पाया है। मगर उसने ऐसा नहीं किया, क्योंकि वह ईमानदार था, फिर मैं उस पर्स को लेकर बेइमान क्यों बनूँ।'
सभी मित्र मेरा उत्तर सुनकर खिल खिलाकर हँस पड़े। और हम हँसते-गाते अपनी मंजिल की ओर बढ़ते गये।
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